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कहानी

एक और इनसान

अनुराग शर्मा


"खिल्लू दंभार मर गया साहब!"

अधबूढ़े का यह वाक्य अभी भी मेरे कानों में गूँज रहा है। वैसे तो मेरे काम में सारे दिन ही कठिन होते हैं मगर आज का दिन कुछ ज्यादा ही अजीब था। सारा दिन मैं अजीब-अजीब लोगों से दो-चार होता रहा। सुबह दफ्तर पहुँचते ही मैले-कुचैले कपड़े वाला एक आदमी एक गट्ठर में सूट के कपड़े लेकर बेचने आया। दाम तो कम ही लग रहे थे। मगर जब उसने बड़ी शान से उनके सस्ते दाम का कारण उनका चोरी का होना बताया तो मुझे अच्छा नहीं लगा। मैंने पुलिस बुलाने की बात की तो वह कुछ बड़बड़ाता हुआ तुरंत रफू चक्कर हो गया।

वह आदमी गया ही होगा कि डेढ़ हाथ का घूँघट काढ़े एक औरत एक-डेढ़ बरस के बच्चे को गोद में लिए हुए तेजी से अंदर आने लगी। दरवाजे पर बैठे गफूर ने उसको रोकने की कोशिश की तो वह रोने लगी। मैंने बाहर आकर पूछा तो उसने बताया कि उसे बरेली जाना है और उसके पास बिलकुल भी पैसे नहीं हैं। जब मैंने पूछा कि वह दिल्ली कैसे पहुँची और बच्चे का बाप कहाँ है तो वह फिर से फूट-फूट कर रोने लगी। सुबह की पहली चाय लाते हुए कैंटीन वाले बहादुर ने जब एक कप उसकी ओर बढ़ाया तो उसने झपटकर ले लिया और जोर की आवाज के साथ जल्दी-जल्दी चाय सुड़कनी शुरू कर दी। शायद उसे भूखा समझकर बहादुर एक प्याली में कुछ रस्क ले आया जो उसने चाय में भिगो-भिगोकर स्वाद लेकर खाए। बच्चा आराम से गोद में सोता रहा। मैं उस औरत की सहायता करना चाहता था मगर पहले इतनी बार ठगा जा चुका था कि अब मैं किसी अनजान को नकद पैसे हाथ में नहीं देता हूँ। मैंने गफूर को अलग ले जाकर उसे दो सौ रुपये देकर उस औरत के साथ बस अड्डे जाकर टिकट खरीदकर बरेली की बस में बिठाने को कहा। फिर बाहर आकर उस औरत को राहखर्च के लिए पचास रुपये अलग से देकर सब समझा दिया। मुझे नेहरू प्लेस ब्रांच-विजिट के लिए देर हो रही थी इसलिए मैं उस औरत की जिम्मेदारी गफूर पर छोड़कर जल्दी से बाहर निकल गया।

नेहरू प्लेस में सब काम ठीक से निबट गया। ब्रांच में अपने कुछ पुराने दोस्तों से मिला और खाना उनके साथ ही खाया। वापसी के लिए ऑटोरिक्शा लेकर उसमें बैठा। अगले चौराहे तक पहुँचा ही था कि ट्रैफिक की बत्ती लाल हो गई। तभी बंजारन सी दिखने वाली दो भिखारिनें मेरे पास आई। मैं सोचने लगा कि जब तक हमारी राजधानी की सड़कें आवारा गायों और भिखारियों से पटी रहेंगी तब तक न तो इन सड़कों पर वाहन चल पाएँगे और न ही खाते-पीते लोग गरीबों को इनसान समझ सकेंगे। मुझे कभी समझ नहीं आया कि यह भिखारी लोग सैकड़ों लोगों की भीड़ में से एक नरमदिल इनसान को कैसे पहचान लेते हैं। इस बार मैंने भी दिल कड़ा कर लिया था। उनके पास आते ही मैंने उनकी ओर देखे बिना बेरुखी से कहा, "माफ करो, छुट्टा नहीं है मेरे पास।"

"मदद कर दो बाबूजी, उसे बच्चा होने को है, लेडी हार्डिंग अस्पताल ले जाना है, वरना मर जाएगी।"

कहते-कहते उसने सड़क के किनारे बैठी हुई एक अल्प-वसना युवती की ओर इशारा किया जिसके खुले पेट को देखते ही उसकी गर्भावस्था का पता लग रहा था। सड़क किनारे अधलेटी वह युवती ऐसे कराह रही थी मानो अत्यधिक पीड़ा में हो। उसे देखते ही मेरे मन में अपने सहकर्मी कुणाल का स्वर गूँजा, "तुझे तो कोई भी कभी भी बेवकूफ बना सकता है।"

मेरे दिमाग ने तेजी से काम करना शुरू किया और मैंने अपने ऑटो-रिक्शा ड्राइवर से इसरार किया कि अगर वह इन स्त्रियों को लेडी हार्डिंग अस्पताल तक ले जाए तो मैं उसे उनका किराया अग्रिम देकर यहाँ उतर जाऊँगा। उसके हामी भरने पर मैंने अंदाजे से लेडी हार्डिंग तक का किराया बटुए में से निकाला और उन औरतों से कहा कि मैं यहाँ उतर रहा हूँ और वे किराए की फिक्र मुझ पर छोड़कर इस ऑटो-रिक्शा में अस्पताल तक चली जाएँ।

उनमें से एक औरत ने कहा, "इसमें बहुत धक्के लगते हैं, वो झेल नहीं सकती है। हमें टैक्सी करनी पड़ेगी। 300 रुपये लगते हैं।"

बत्ती हरी हो गई थी। साथ का यातायात चलने लगा था और पीछे वाले वाहनों ने भी शोर मचाना शुरू कर दिया था। उन्हें टैक्सी का किराया भी पहले से मालूम है, इस बात से मेरा माथा ठनका। शायद उन्होंने मेरी झिझक का अंदाज लगा लिया था इसलिए जब तक मैं कुछ समझ पाता वे मेरे हाथ से रुपये लेकर सड़क के पार अपनी कराहती हुई साथन की ओर चली गई। मैं रास्ते भर इस विचार में उलझा रहा कि क्या उन्हें सचमुच अस्पताल जाना था या फिर यह भी ठगी की ही एक चाल थी। कनॉट प्लेस के पास से गुजरते समय मैंने उसी तरह की दो अन्य स्त्रियों को एक मोटरसाइकिल वाले से रुपये लेते हुए देखा। नेहरू प्लेस की तरह ही यहाँ भी पास की पटरी पर एक लंबोदरा कराह रही थी। अब मुझे अपने ठगे जाने पर कोई शुबहा नहीं रहा था।

आधे घंटे में मैं दफ्तर पहुँच गया। चाय का कप रखते हुए बहादुर ने खाने के लिए पूछा तो मैंने बताया कि मैं ब्रांच में खाकर आया हूँ। कुछ ही देर में गफूर भी वापस आ गया। दस रुपये मेरी मेज पर रखता हुआ बोला, "ये बचे हैं सर।"

मेरे अंदाजे से गफूर को कुछ और पैसे वापस करने चाहिए थे। मैंने प्रश्नवाचक नजरों से उसे देखा तो बोला, "सर, उसे बरेली नहीं रायबरेली जाना था। टिकट, और मेरा आना-जाना मिलाकर बस यही बचा है।"

"यह भी तुम्ही रख लो, काम आएगा"

गफूर खुशी-खुशी दस का नोट लेकर बाहर चला गया। उसे वापस आने में जितना समय लगा था उससे साफ था कि उसने आते-जाते दोनों बार बस ही ली है। रायबरेली का फास्ट बस का किराया जोड़ने पर भी उसके पास मेरे दिए पैसे में से कम से कम पचास रुपये बचने चाहिए थे।

मैं सोचने लगा कि क्या दूसरों को बेवकूफ बनाकर पैसे ऐंठना इनसान का स्वाभाविक गुण है। क्या यह माँगने वाले और इन्हें बेरुखी से झिड़कने वाले सब लोग सामान्य हैं और मैं ही असामान्य हूँ। मुझे याद आया जब बचपन में एक बार मैंने पिताजी से पूछा था, "पापा, सनकी कौन होते हैं?"

"सनकी?" पिताजी ने हँसते हुए कहा था, "मतलब हम जैसे लोग।"

फिर समझाते हुए बोले थे, "जो भीड़ से अलग हटकर सोचते हैं, उन्हें दुनिया सनकी कहती है।"

आज के अनुभव से मुझे एक बार फिर ऐसा लगा जैसे देश भर में हर तरफ या तो भिखारी हैं या लुटेरे हैं। मुझे ध्यान आया कि आधुनिक भिक्षुकों को भीख माँगने के लिए मैले कपड़े पहनने की जरूरत भी नहीं है।

एक दिन साफ-सुथरे कपड़ों में सजे सँवरे बालों वाला एक पढ़ा-लिखा अधेड़ गफूर के रोकते-रोकते अंदर आ गया। अपनी जेब कटने का दुखड़ा रोते हुए उसने बताया कि वह सोनीपत में बिजलीघर में काम करता है। सरकारी काम से यहाँ आया था। वापस जा रहा था रास्ते में जेब कट गई। परिचय पत्र, रेल का पास, और सारे पैसे चले गए। मैंने बहादुर से कहकर उसे खाना खिलाया और वापसी लायक पैसे देकर रवाना किया। जाने से पहले उसने अँग्रेजी में शुक्रिया अदा करते हुए मेरा नाम पता एक पर्ची पर लिख लिया और बहुत शर्मिंदा स्वर में घर पहुँचते ही पैसे मनी आर्डर से भेजने का वायदा किया। चार हफ्ते गुजर गए हैं कोई मनी आर्डर नहीं आया। पैसे न मिलने से मुझे फर्क नहीं पड़ता मगर बेवकूफ बनने का मलाल तो होता ही है। तो क्या मैं अनजान लोगों की सहायता करना बंद कर दूँ? नहीं! क्या पता कब किसी को सचमुच ही जरूरत हो? अगर सनकी लोग भी स्वार्थी हो जाएँगे तो फिर तो दुनिया का काम ही रुक जाएगा।

साढ़े चार के करीब माहेश्वरी सिगरेट पीने बाहर आया तो मुझे भी बाहर बुला लिया। लगभग उसी समय फटी बनियान और जाँघिए में वह अधबूढ़ा आदमी हाथ फैलाए अंदर आया था।

"कुछ पैसे मिल जाते साहब..." उसने रिरियाते हुए कहा।

"बहादुर! इसे कुछ खाने को दे दो।"

मेरी आवाज सुनते ही बहादुर आ गया। आगंतुक अपनी जगह से हिला भी नहीं।

"मेरा पेट तो न कभी भरा है साहब, न ही भरेगा" उसका दार्शनिक अंदाज अप्रत्याशित था।

"तो चाय पिएगा क्या? पैसे नहीं मिलने वाले यहाँ" मैंने रुखाई से कहा।

"आजकल तो चा की प्याली का मोल भी एक गरीब की जिंदगी से ज्यादा है साहब!"

अब मैंने उसे गौर से देखा। जुगुप्सा हुई। आँख में कीचड़ और नाक में गेजुए। चेहरे पर मैल न जाने कब से ऐसे घर बनाकर बैठा था कि झुर्रियों के बीच की सिलवटें उस धूल, मिट्टी और कीचड़ से सिली हुई मालूम होती थी। सर पर उलझे बेतरतीब बाल। एक नजर देखने पर बहुत बूढ़ा सा लगा मगर सर के बाल बिलकुल काले थे। ध्यान से देखने पर लगा कि शायद मेरा सम-वयस्क ही रहा होगा। मैं उसे ज्यादा देर तक देख न सका। उसके आने की वजह पूछी।

"खिल्लू दंभार मर गया साहब!" उसने मरघट सी सहजता से कहा, "बहुत दिन से बीमार था। कफन के लिए पैसे माँग रहा हूँ।"

उसने खिल्लू दंभार के बारे में ऐसे बताया मानो सारी दुनिया उसे जानती हो। मुझे मृतक के बारे में जानने की उत्सुकता हुई। मैंने पूछना चाहा कि मृतक का उससे क्या रिश्ता था, वह कहाँ रहता था, उसके परिवार में कौन-कौन था। मगर फिर मन में आया कि यदि यह आदमी भी सिर्फ पैसे ऐंठने आया होगा तो कुछ न कुछ सच-झूठ बोल ही देगा। मैंने बटुआ खोलकर देखा तो उसमें पूरे एक सौ पैंतालीस रुपये बचे थे। मैंने तीस रुपये सामने मेज पर रख दिए। मेरी देखा-देखी माहेश्वरी ने भी दस का एक नोट सामने रखा। उस अधबूढ़े ने नोट उठाकर अपनी अंटी में खोंस लिए और लँगड़ाता सा बाहर निकल गया। कुणाल जो अब तक अंदर अपने क्यूब में बैठा सारा दृश्य देख रहा था, बाहर आया और हँसता हुआ बोला, "दानवीर कर्ण की जय हो।"

"बंदे की दो दिन की दारू का इंतजाम हो गया फ्री-फंड में।"

बात हँसी में टल गई। हम लोग फिर से काम में लग गए।

आज काम भी बहुत था। काम पूरा हुआ तो घड़ी देखी। साढ़े छह बज गए थे। दस मिनट भी और रुकने का मतलब था, आखिरी बस छूट जाना। जल्दी से अपना थैला उठाया और बाहर निकला। लगभग दौड़ता हुआ सा बस स्टॉप की तरफ चलने लगा। यह क्या? यह लोग सड़क किनारे क्या कर रहे हैं? शायद कोई दुर्घटना हुई है। यह तो सफेद कपड़े में ढँकी कोई लाश लग रही है। अरे, लाश के पास तो वही अधबूढ़ा बैठा है। और उसके साथ ये दो लोग? गर्मी के दिन थे इसलिए अभी तक कुछ रोशनी थी। मैं थोड़ा पास पहुँच तो देखा वह अधबूढ़ा धीरे-धीरे एक जर्जर लाश को झकाझक सफेद कपड़े से ढकने की कोशिश कर रहा था। दस-बारह साल के दो लड़के उसकी सहायता कर रहे थे। इसका मतलब है कि अधबूढ़ा सच बोल रहा था। मुझे उसके प्रति अपने व्यवहार पर शर्म आई। मैंने घड़ी देखी। बस आने में अभी थोड़ा समय था। मैंने बटुए में से सौ रुपये का नोट निकाला और लपककर अधबूढ़े के पास पहुँच।

"तो यह है खिल्लू दंभार" मैंने नोट उसकी ओर बढ़ाते हुए कहा, "ये कुछ और पैसे रख लो काम आएगे।"

"नहीं साहब, पैसे तो पूरे हो गए हैं। मैं और मेरे लड़के मिलाकर तीन लोग हैं..." उसने अपना काम करते-करते विरक्त भाव से कहा।

"...साहब!" उसने बहुत दीन स्वर में कहा, "...बस एक इनसान और मिल जाता तो चारों कंधे देकर इसे घाट तक लगा आते।"


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